ये है Iron Lung!
इसे देखकर लगता है जैसे कोई साइंस फिक्शन की ताबूत हो,
न कि कोई मेडिकल चमत्कार.
पर इसकी कहानी है बड़ी दिलचस्प, डर, हिम्मत, और एक ऐसी बीमारी से जंग की, जिसने उस दौर में सब की नींद उड़ा रखी थी.
सोचो एक ऐसी दुनिया, जहाँ हल्का सा बुखार भी आपको अपाहिज बना सकता था,
और अगले दिन आपकी साँसें भी रोक सकता था.
ये था पोलियो का कहर.
ये सिर्फ बच्चों को लंगड़ा नहीं बनाता था, बल्कि इसके सबसे खतरनाक रूप, जिसे bulbar polio कहते हैं,
में ये साँस लेने वाली और निगलने वाली मसल्स को बेकार कर देता था.
डायफ्राम, वो मसल जो हमें साँस लेने में मदद करती है, वो काम करना बंद कर देती थी.
और बस, 1920s के आखिर में, एक हल निकला, जो काफी नाटकीय था.
Iron Lung, या नेगेटिव प्रेशर वेंटिलेटर, एक बहुत बड़ा मेटल का सिलेंडर था,
जिसमें से मरीज का बस सिर बाहर रहता था. बाकी पूरी बॉडी अंदर बंद.
फिर एक वैक्यूम पंप से सिलेंडर के अंदर हवा का प्रेशर बदला जाता था.
जब प्रेशर कम होता, तो छाती फूलती और फेफड़ों में हवा भर जाती. और जब प्रेशर नॉर्मल होता, तो छाती सिकुड़ती और हवा बाहर निकल जाती.
ये मशीन असल में मरीज के लिए बाहर से साँस लेने का काम करती थी.
पोलियो की महामारी के दौरान, अस्पतालों में ऐसी ढेरों मशीनें देखने को मिलती थीं.
इनकी “हफ़-हफ़” की आवाज़ पूरे वार्ड में गूंजती थी.
कई मरीज तो इसमें सालों-साल, यहाँ तक कि दशकों तक रहते थे.
वे अपनी जिंदगी इसी लोहे की कैद में जीते थे. वे अपने सिर के ऊपर लगे शीशे में अपने परिवार को देखते, उनसे बातें करते और इसी लोहे की दुनिया से बाहर की दुनिया सुनते थे.
Iron Lung सिर्फ एक मशीन नहीं थी, बल्कि मुश्किलों के आगे ना हारने की एक मिसाल थी.
ये हज़ारों लोगों के लिए आखिरी उम्मीद थी, जब तक 1950s में पोलियो की वैक्सीन नहीं आ गई, जो असली हीरो थी.
आज भले ही हम इसे सिर्फ म्यूजियम या किताबों में देखते हैं, पर Iron Lung उस डरावने दौर और इंसानी दिमाग की कमाल की सोच का एक मज़बूत सबूत है.
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