ज़रा सोचिए… वो समय जब न ऑपरेशन थिएटर था, न एनेस्थीसिया, न एंटीसेप्टिक।
कोई अगर लड़ाई में घायल हो गया, या शिकार के दौरान शरीर पर गहरा घाव लग गया,
तो उसे सिलने का काम किसी मशीन या डॉक्टर के भरोसे नहीं था—बस आसपास की चीज़ों, अनुभव और इंसानी बुद्धि पर निर्भर था।
खून का बहना रोकना और घाव को संक्रमण से बचाना उस समय सबसे बड़ी चुनौती थी।
और यहीं से शुरू होती है इंसानी जिजीविषा और अनोखे इलाज की वो दास्तान जो हमें आज के आधुनिक सर्जरी के स्तर तक ले आई।
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चींटियों से टांके लगाना: एक चौंकाने वाली तकनीक
शुरुआत होती है एक चौंकाने वाली तकनीक से—चींटियों से टांके लगाना।
भारत और अफ्रीका की कुछ पुरानी सभ्यताओं में बड़ी और ताक़तवर जबड़ों वाली soldier ants
का इस्तेमाल किया जाता था।
घाव के दोनों किनारों को हाथ से मिलाया जाता, और चींटी को वहां छोड़ दिया जाता। जैसे ही चींटी अपने मजबूत जबड़े से त्वचा को पकड़ती, उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाता।
उसका जबड़ा वहीं बना रहता—एक नेचुरल स्टेपल की तरह। दर्दनाक तो था, लेकिन कमाल का इलाज था वो, जिसने न जाने कितनी ज़िंदगियाँ बचाईं।
जानवरों की आंतों और बालों का कमाल
धीरे-धीरे इंसानों ने देखा कि जानवरों की आंतें बेहद लचीली और मज़बूत होती हैं।
खासकर भेड़, बिल्ली या गाय की आंतों को साफ करके, सुखाकर धागे बनाए गए जिन्हें बाद में शरीर में डालने पर खुद-ब-खुद पच जाने की खूबी मिली।
यह तरीका इतना असरदार था कि आज भी हम इन्हें “absorbable sutures” के रूप में जानते हैं—हालांकि अब वे सिंथेटिक होते हैं, लेकिन विचार वही पुराना है।
दूसरी तरफ, कुछ संस्कृतियों ने घोड़े की पूंछ या इंसानों के बालों से टांके लगाए।
बालों को उबालकर या सुखाकर धागा बनता था, लेकिन उन्हें साफ़ रखना मुश्किल होता था, और संक्रमण का खतरा भी बहुत ज़्यादा रहता था।
प्राचीन भारतीय चिकित्सा में सुई और धागा
टांके लगाने के लिए उस समय की सुइयाँ भी अपने आप में एक चुनौती थीं।
ये नाजुक, पतली स्टेनलेस स्टील वाली नहीं थीं, बल्कि मोटी और कठोर—जो जानवरों की हड्डियों या कांसे-तांबे जैसी धातुओं से बनी होती थीं।
इन्हें बार-बार इस्तेमाल किया जाता, बिना किसी उचित सफ़ाई के, और इसीलिए संक्रमण का खतरा हमेशा बना रहता।
कुछ विशेष वर्गों के लिए, जैसे राजाओं और अमीरों के लिए, रेशमी धागा टांके लगाने के लिए इस्तेमाल होता था।
चीन और भारत की कई राजसी सभ्यताओं में यह रेशम—जो कीड़ों के कोकून से निकलता था—एक साफ, हल्का और मज़बूत विकल्प था।
हालांकि यह आम जनता की पहुंच से बाहर था, लेकिन यह दिखाता है कि किस तरह सामाजिक और आर्थिक स्थिति का असर इलाज की गुणवत्ता पर पड़ता था।
इसी दौरान, भारत की चिकित्सा परंपरा में टांकों का उल्लेख बहुत पहले से मिलता है।
सुश्रुत संहिता (600 ईसा पूर्व) में न केवल सर्जरी और औजारों का ज़िक्र है, बल्कि प्लास्टिक सर्जरी, स्किन ग्राफ्टिंग, और टांके लगाने के विभिन्न तरीकों को भी विस्तार से बताया गया है।
सुश्रुत के प्रयोगों में सिर्फ़ सुई और धागा ही नहीं, बल्कि हल्दी, शहद और नीम जैसे प्राकृतिक एंटीसेप्टिक्स का भी इस्तेमाल होता था, जिससे घाव जल्दी भरे और संक्रमण न फैले।
जब विज्ञान ने सब बदल दिया
फिर आया वो समय जब विज्ञान ने टांकों की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया।
19वीं सदी में Joseph Lister ने स्टेरिलाइज़ेशन और एंटीसेप्टिक तकनीकों की खोज की, जिसने संक्रमण से होने वाली मौतों को कम कर दिया।
और आज हम ऐसे दौर में हैं जहाँ टांका लगाने के लिए dissolvable sutures
, सर्जिकल ग्लू, स्टेपलर्स, लेजर सीलिंग और रोबोटिक सर्जरी जैसी तकनीकें मौजूद हैं।
तो जब अगली बार आप एक छोटे से कट पर भी डॉक्टर के पास जाएँ, और थोड़ा सा टांका लगे—तो ज़रा उस चींटी की कल्पना कीजिए जो कभी किसी के ज़ख्म पर चिपकी थी।
सोचिए उन लोगों के बारे में जिन्होंने बिना दवाई, बिना बेहोशी, बिना मशीन के, अपनी जिद, बुद्धि और सीमित संसाधनों से शरीर के चीरे हुए हिस्सों को जोड़ा।
यह दास्तान सिर्फ़ टांकों की नहीं, बल्कि इंसानी जिजीविषा की है—जो हर मुश्किल के सामने नया रास्ता निकालने का हौसला रखती है
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