आज जब आप या आपका बच्चा डॉक्टर के पास इंजेक्शन लगवाने जाते हैं,

तो आपको पता होता है कि डॉक्टर एक बिलकुल नई, साफ़-सुथरी सिरिंज का इस्तेमाल करेंगे,

जिसे वो आपके सामने ही पैकेट से निकालेंगे। यह प्रक्रिया हमें सुरक्षित और सामान्य लगती है।

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पर क्या आपने कभी सोचा है कि हमेशा से ऐसा नहीं था?

आज की कहानी उसी दुनिया की है जहाँ हर इंजेक्शन अपने साथ एक ख़तरा लेकर आता था,

और उसी ख़तरे से लड़ने के लिए एक इंसान ने अपनी ज़िद से एक नया रास्ता बनाया।

 

जब इंजेक्शन बनता था ख़तरे की वजह

कोसका जानता था कि उस समय दोबारा इस्तेमाल होने वाली सिरिंज आम थीं, जो ज़्यादातर काँच या धातु की बनी होती थीं।

इन्हें उबालकर साफ़ करने का तरीक़ा भी पूरी तरह से कारगर नहीं था, और अक्सर कई बीमारियों के फैलने का कारण बनता था।

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1984 का साल। एक 23 साल का नौजवान, मार्क कोसका, जो एक प्लास्टिक कंपनी में काम करता था,

एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में इंडोनेशिया गया हुआ था।

वहाँ एक स्थानीय अस्पताल में उसकी नज़र एक ऐसी चीज़ पर पड़ी, जिसने उसकी ज़िंदगी का मकसद हमेशा के लिए बदल दिया।

उसने देखा कि एक डॉक्टर एक इंजेक्शन लगाने के बाद, उसी सुई को पानी में धोकर और उबालकर दूसरे मरीज़ के लिए इस्तेमाल कर रहा था।

 

एक सवाल, एक ख़बर और एक ज़िद का जन्म

उस दिन कोसका के मन में एक गहरा सवाल उठ गया।

उसे पता था कि दुनिया के कई हिस्सों में नई सिरिंज इतनी महँगी होती थीं कि उन्हें बार-बार इस्तेमाल करना एक मजबूरी थी।

यह कोई लापरवाही नहीं, बल्कि साधनों की कमी थी।

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इसीलिए, जब उसने डॉक्टर को ऐसा करते देखा, तो उसके मन में एक सवाल ने जन्म लिया:

“यह जानते हुए कि एक सुई से बार-बार इंजेक्शन लगाना सेहत के लिए कितना ख़तरनाक है, लोग ऐसा करने पर मजबूर क्यों हैं?

इसे रोकने का कोई तरीका क्यों नहीं है?” उस पल उसे एहसास हुआ कि यह सिर्फ एक लापरवाही नहीं,

बल्कि लाखों लोगों के लिए मौत का एक रास्ता बन सकती है।

 

इसी बीच, एक अख़बार में छपी एक ख़बर ने उसकी बेचैनी को और बढ़ा दिया।

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ख़बर में लिखा था कि असुरक्षित इंजेक्शन की वजह से HIV और Hepatitis-B जैसी बीमारियाँ कितनी तेज़ी से फैल रही हैं।

कोसका समझ चुका था कि यह कोई मामूली दिक्कत नहीं, बल्कि एक वैश्विक त्रासदी है।

उस पल उसकी ‘जिज्ञासा’ (curiosity) एक ‘जिद’ में बदल गई।

उसने ठान लिया कि “मैं एक ऐसी सिरिंज बनाऊँगा जिसे सिर्फ़ एक बार ही इस्तेमाल किया जा सके।”

यह सिर्फ़ एक आविष्कार का विचार नहीं था, बल्कि लाखों ज़िंदगियाँ बचाने का एक जुनून था।

 

एक सरल विचार और 17 साल का लंबा संघर्ष

कोसका जानता था कि सिरिंज का पुराना तरीक़ा ही असल में समस्या नहीं है, समस्या तो उसे बार-बार इस्तेमाल करने की आदत में है।

उसने एक बहुत ही आसान, लेकिन कमाल की तकनीक खोजी।

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एक आम सिरिंज में एक पिस्टन होता है।

ऑटो-डिसेबल सिरिंज में, कोसका ने पिस्टन के पीछे एक छोटा-सा लॉक लगा दिया।

जब आप एक बार पिस्टन को पूरी तरह से दबा देते हैं, तो वह लॉक अपने आप एक्टिवेट हो जाता है,

और उसके बाद पिस्टन को दोबारा पीछे खींचा ही नहीं जा सकता।

 

उसने तीन मिनट में अपनी सिरिंज का शुरुआती डिज़ाइन बना लिया, लेकिन इस एक विचार को हकीकत में बदलने के लिए उसकी ज़िद को 17 साल का लंबा संघर्ष करना पड़ा।

 

उसके सामने आई मुश्किलें सिर्फ़ बाज़ार की नहीं थीं, बल्कि उसकी ज़िद की भी परीक्षा ले रही थीं:

कंपनियों का विरोध: जब वह अपनी सिरिंज का मॉडल लेकर दुनिया भर की कंपनियों के पास गया, तो उन्होंने कहा, “तुम्हारा यह आविष्कार हमारा बिज़नेस ख़त्म कर देगा।”

कुछ जगहों से उसे धमकी भी मिली और यहाँ तक कि उसके पेटेंट को ख़रीदकर उसे दफ़नाने की भी कोशिश हुई।

लागत और सरकारी नीतियाँ: सरकारें भी तुरंत तैयार नहीं थीं, उन्हें लगता था कि यह ज़्यादा महंगा होगा और उनके मौजूदा टीकाकरण अभियानों में मुश्किल आएगी।

 

एक छोटे से आविष्कार की बड़ी जीत

कोसका की ज़िद 2001 में रंग लाई,

जब उसकी कंपनी स्टार सिरिंज (Star Syringe) की तकनीक का पहला ग्राहक भारत का सिरिंज निर्माता, हिन्दुस्तान सिरिंज (Hindustan Syringes and Medical Devices) बना।

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दरअसल, मार्क कोसका को अपनी तकनीक को दुनिया में लाने के लिए एक ऐसे पार्टनर की तलाश थी जो इसे बड़े पैमाने पर बना सके।

इसी खोज में उन्हें भारत में हिन्दुस्तान सिरिंज एंड मेडिकल डिवाइसेस (HMD) मिली।

हिन्दुस्तान सिरिंज कंपनी ने 2001 में कोसका की ‘स्टार सिरिंज’ तकनीक को अपने यहाँ बनाने और दुनिया में बेचने का लाइसेंस लिया।

यह साझेदारी न सिर्फ़ कोसका की पहली जीत थी, बल्कि इसने भारत को इस तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने वाला पहला देश भी बना दिया।

 

इस 13 साल के दौरान, उसकी ज़िद एक मिशन में बदल चुकी थी:

अकेले ही लड़ता रहा: वह एक-एक करके गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) के पास गया और उन्हें अपनी सिरिंज की अहमियत समझाई।

बढ़ा हुआ विश्वास: उसकी सिरिंज की सफलता को देखकर WHO और यूनिसेफ़ जैसे बड़े संगठन इसके महत्व को समझने लगे।

उन्होंने इसे बड़े पैमाने पर खरीदना और वितरित करना शुरू किया।

कीमत की जंग: जब उसकी ज़िद की वजह से मांग बढ़ी, तो बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा।

इससे सिरिंज की लागत भी कम हो गई, और यह आम सिरिंज की तरह ही सस्ती हो गई।

2014 में, WHO ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला लिया।

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2015 में जारी की गई एक पॉलिसी में यह अनिवार्य कर दिया गया कि दुनिया भर में सभी इंजेक्शन के लिए सिर्फ़ ऑटो-डिसेबल सिरिंज का ही इस्तेमाल किया जाएगा,

ताकि असुरक्षित इंजेक्शन से होने वाली मौतों को रोका जा सके।

यह कहानी एक ऐसे इंसान की है, जिसकी एक छोटी सी ज़िद ने दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य चुनौतियों में से एक का समाधान निकाल दिया।

 

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