आज ब्लड ट्रांसफ्यूजन एक सामान्य और जीवन रक्षक प्रक्रिया है, लेकिन इसका इतिहास वैज्ञानिक प्रयोगों, असफलताओं और क्रांतिकारी खोजों से भरा हुआ है।
इसकी शुरुआत एक बहुत ही अजीब और पुरानी चिकित्सा पद्धति से हुई थी, जिसे ब्लडलेटिंग (शरीर से खून निकालना) कहते थे।
गैलन की थ्योरी के अनुसार, शरीर से ‘खराब’ खून निकालकर बीमारी को ठीक किया जाता था।
यह सोच सदियों तक चली, क्योंकि किसी को पता ही नहीं था कि खून असल में काम कैसे करता है।
इस पर सवाल उठाने की हिम्मत किसी में नहीं थी… जब तक कि एक इंसान ने गणित का इस्तेमाल नहीं किया।
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पहला अध्याय: विलियम हार्वे की क्रांति
हमारी कहानी का पहला बड़ा मोड़ 1628 में आता है।
उस समय, दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक यूनानी चिकित्सक गेलन (Galen) को माना जाता था, जिनकी थ्योरी 1500 सालों से अटल थी।
उनका मानना था कि शरीर में खून कहीं घूमता नहीं, बल्कि खाना खाकर लिवर में नया खून बनता है और फिर शरीर में इस्तेमाल होने के बाद खत्म हो जाता है।
उन्होंने अनुमान लगाया कि एक इंसान का दिल एक मिनट में लगभग 70 मिलीलीटर खून पंप करता है।
अगर इस हिसाब से देखें तो एक दिन में यह मात्रा 100 लीटर से भी ज़्यादा हो जाती है।
हार्वे ने सोचा: “क्या कोई शरीर इतनी तेज़ी से इतना सारा नया खून बना सकता है?” इसका सीधा-सा जवाब था – नहीं। यह बात साफ थी कि खून बनता नहीं, बल्कि शरीर में लगातार घूमता रहता है।
हार्वे ने अपनी इस खोज को साबित करने के लिए जानवरों के दिल और नसों का अध्ययन किया और यह दिखाया कि नसें और धमनियां (arteries) एक बंद लूप में काम करती हैं।
इस तरह उन्होंने गैलन की पुरानी सोच को पलट दिया और चिकित्सा विज्ञान की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।
अगली समस्या: हार्वे ने यह तो साबित कर दिया कि खून घूमता है, लेकिन अब सवाल यह था कि क्या इस लूप में बाहर से खून डाला भी जा सकता है?
दूसरा अध्याय: जीन-बाप्तिस्ट डेनिस का साहसिक कदम
उन्होंने सोचा कि अगर खून लगातार घूम रहा है, तो किसी कमजोर या बीमार व्यक्ति को बाहर से खून डालकर उसे फिर से ताकत क्यों नहीं दी जा सकती?
डेनिस ने अपना पहला प्रयोग एक 15 साल के बीमार लड़के पर किया, जिसे भेड़ का खून चढ़ाया गया।
यह प्रयोग सफल रहा और लड़का ठीक हो गया। यह खबर पूरे यूरोप में आग की तरह फैल गई, लेकिन डेनिस की सफलता ज़्यादा दिन तक नहीं टिकी।
बाद में उनके एक और प्रयोग में एक व्यक्ति की मौत हो गई। इस घटना के बाद डेनिस पर मुक़दमा चला और 1670 में फ्रांस में जानवरों का खून इंसान को चढ़ाने पर रोक लगा दी गई।
डेनिस के प्रयोगों ने भले ही तुरंत फायदा नहीं पहुँचाया, लेकिन उन्होंने यह दिखा दिया कि जानवरों का खून इंसानों के लिए सुरक्षित नहीं है।
अगली समस्या: डेनिस के प्रयोगों ने एक नया रहस्य छोड़ दिया। अगर जानवरों का खून काम नहीं करता, तो क्या इंसानों का खून इंसानों को चढ़ाया जा सकता है? और अगर हाँ, तो कभी-कभी यह जानलेवा क्यों होता है?
तीसरा अध्याय: जेम्स ब्लंडेल का इंसानी प्रयोग
अगले 150 सालों तक ट्रांसफ्यूजन का काम लगभग रुक सा गया था। फिर 19वीं सदी में, ब्रिटिश डॉक्टर जेम्स ब्लंडेल ने इस रुके हुए काम को आगे बढ़ाया।
वह मानते थे कि जानवरों का खून इस्तेमाल करना ही गलती थी। उन्होंने फैसला किया कि वे सिर्फ इंसानों का खून इंसानों को देंगे।
ब्लंडेल ने 1818 में एक ऐसी महिला को खून दिया जिसकी डिलीवरी के बाद बहुत ज़्यादा खून बह गया था।
ब्लंडेल ने अपने मरीज़ से खून लिया और उस महिला को चढ़ाया। यह ट्रांसफ्यूजन सफल रहा।
इसके बाद, उन्होंने कई और प्रयोग किए। कुछ सफल हुए और कुछ असफल। ब्लंडेल ने अपने आधे मरीज़ों को तो बचा लिया, लेकिन आधे की मौत हो गई।
अगली समस्या: ब्लंडेल के प्रयोगों ने एक और बड़ा सवाल खड़ा कर दिया: अगर इंसानों का खून इंसानों को ही चढ़ाया जा रहा है, तो क्यों कुछ मामलों में जान बच जाती है, और कुछ में नहीं?
यह रहस्य चिकित्सा विज्ञान की सबसे बड़ी पहेलियों में से एक बन गया।
चौथा अध्याय: कार्ल लैंडस्टीनर की निर्णायक खोज
इस सबसे बड़ी पहेली को 1901 में एक ऑस्ट्रियाई वैज्ञानिक कार्ल लैंडस्टीनर ने सुलझाया।
वह वियना यूनिवर्सिटी में पैथोलॉजिस्ट थे और उन्होंने अपनी आँखों से लोगों को गलत ट्रांसफ्यूजन के कारण मरते देखा था।
लैंडस्टीनर ने एक बहुत ही साधारण प्रयोग किया। उन्होंने अपने लैब में काम करने वाले साथियों के खून के नमूने लिए और उन्हें आपस में मिलाया।
उन्होंने देखा कि कुछ नमूनों को मिलाने पर खून के कण आपस में चिपककर गुच्छे (clumps) बना लेते थे, जबकि कुछ में ऐसा नहीं होता था।
लैंडस्टीनर समझ गए कि खून एक जैसा नहीं होता। उन्होंने खून को तीन हिस्सों में बाँटा और उन्हें नाम दिया ग्रुप A, ग्रुप B और ग्रुप O।
बाद में उनके सहयोगियों ने ग्रुप AB की भी खोज की।
उन्होंने यह भी साबित किया कि जब गलत ब्लड ग्रुप मिलाया जाता है, तो खून के गुच्छे नसों को ब्लॉक कर देते हैं और यही मौत की असली वजह होती है।
इस खोज ने ब्लड ट्रांसफ्यूजन को एक जुए से निकालकर एक सुरक्षित विज्ञान बना दिया। इस महान खोज के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार मिला और उन्हें “ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन का जनक” कहा जाता है।
अगली समस्या: लैंडस्टीनर की खोज ने गलत ब्लड ग्रुप की समस्या तो हल कर दी थी, लेकिन खून को स्टोर करने की एक बड़ी चुनौती अभी भी बाकी थी।
पाँचवाँ अध्याय: थक्का जमने की पहेली को सुलझाना
ब्लड ट्रांसफ्यूजन अब सुरक्षित हो गया था, लेकिन सिर्फ़ तभी जब खून तुरंत लिया और दिया जाता था।
जैसे ही खून शरीर से बाहर निकाला जाता था, वह कुछ ही मिनटों में जमना शुरू हो जाता था। इस वजह से न तो ब्लड बैंक बन सकते थे और न ही खून को दूर तक ले जाया जा सकता था।
प्रथम विश्व युद्ध (World War I) के दौरान, यह समस्या और भी विकट हो गई, क्योंकि घायल सैनिकों को तुरंत खून नहीं मिल पाता था।
इस पहेली को सुलझाने का श्रेय दो वैज्ञानिकों को जाता है: अल्बर्ट हस्टिन और रिचर्ड लेविंसन।
इन दोनों ने अलग-अलग काम करते हुए एक ही समाधान खोजा। उन्होंने पाया कि सोडियम सिट्रेट नाम का एक रसायन (chemical) खून में मिलाने पर वह उसे जमने से रोकता है।
सोडियम सिट्रेट खून से कैल्शियम आयन (calcium ion) को हटा देता है, जो खून के जमने की प्रक्रिया के लिए बहुत ज़रूरी होता है।
इस खोज के बाद, डॉक्टरों ने खून में सोडियम सिट्रेट मिलाना शुरू किया और यह खून कई दिनों तक जमने से बच जाता था।
अब खून को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना और इमरजेंसी के लिए स्टोर करना संभव हो गया था।
आज की स्थिति
विलियम हार्वे के क्रांतिकारी विचार, डेनिस और ब्लंडेल के जोखिम भरे प्रयोगों, लैंडस्टीनर की निर्णायक खोज, और हस्टिन-लेविंसन के समाधान के कारण ही आज ब्लड ट्रांसफ्यूजन एक सुरक्षित और जीवन रक्षक प्रक्रिया बन पाई है।
इस सफर ने हमें सिखाया कि हर समस्या के पीछे एक समाधान छिपा होता है, बस उसे खोजने की हिम्मत चाहिए।
अस्वीकरण (Disclaimer)
कृपया ध्यान दें: यह ब्लॉग पोस्ट केवल जानकारी और ऐतिहासिक उद्देश्यों के लिए है। इसका उद्देश्य किसी भी तरह की चिकित्सा सलाह या इलाज देना नहीं है।
स्वास्थ्य से जुड़ी किसी भी समस्या के लिए हमेशा योग्य डॉक्टर या स्वास्थ्य विशेषज्ञ से सलाह लें।
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