आज के इस दौर में, जहाँ टेक्नोलॉजी ने हमारी ज़िंदगी को इतना आसान बना दिया है, क्या आप सोच सकते हैं कि लाखों महिलाएँ आज भी एक ऐसे दर्द से जूझ रही हैं जिसे अक्सर ‘नॉर्मल’ कहकर टाल दिया जाता है?
यह सिर्फ शारीरिक दर्द नहीं, बल्कि एक अकेलापन है— एक ऐसी लड़ाई जो वो चुपचाप लड़ रही हैं, बिना किसी को बताए, बिना किसी से शिकायत किए।
यह दर्द सिर्फ उनका नहीं, बल्कि उन सदियों का है जब इसे कोई नाम तक नहीं मिला था।
यह उन पीढ़ियों का दर्द है, जिसे कभी बुरी आत्माओं का साया तो कभी श्राप मान लिया गया। पर क्या आप जानते हैं, इस अनकही कहानी को आखिर पहचान कैसे मिली?
यह कहानी सिर्फ एक बीमारी की नहीं, बल्कि एक ज़िद की है।
उन डॉक्टरों की जिन्होंने अनसुने दर्द को सुना, उन वैज्ञानिकों की जिन्होंने पहेलियों को सुलझाया, और उन लाखों महिलाओं की जिन्होंने अपने दर्द को हिम्मत से आवाज़ दी।
आइए, उस सफर पर चलते हैं जहाँ एक गुमनाम दर्द को मिला उसका सही नाम: एंडोमेट्रियोसिस।
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एक ज़माने की बात है, महिलाओं के शरीर के अंदर एक ऐसा दर्द रहता था जिसका कोई नाम नहीं था।
यह एक ऐसा दर्द था जो हर महीने आता था, और इसे बस एक ही बात कहकर टाल दिया जाता था: “महिलाओं को तो ऐसा होता ही है।”
सदियों तक, यह दर्द एक अनकहा राज़ बन कर रहा।
कहानियों में, इसे बुरी आत्माओं या किसी देवी-देवता के श्राप से जोड़ दिया जाता था।
उस ज़माने के हकीम और वैद्य भी इसे ठीक से समझ नहीं पाते थे।
फिर आया 17वीं और 18वीं सदी का दौर।
कुछ डॉक्टरों ने लाशों की जाँच करते हुए देखा कि पेट के अंदर कुछ अजीब सी गांठे हैं।
उन्होंने इसके बारे में लिखा तो सही, पर उन्हें यह नहीं पता था कि ये क्या हैं और इनका दर्द से क्या रिश्ता है।
वे एक पहेली के कुछ टुकड़े खोज चुके थे, पर पूरी पहेली अभी भी बाकी थी।
19वीं सदी में समझ की पहली किरण आई।
एक बहुत ही ध्यान देने वाले डॉक्टर कार्ल वॉन रोकिटान्स्की ने इन गांठों को पहली बार ध्यान से देखा।

IMAGE CREDIT:https://en.wikipedia.org/wiki/Carl_von_Rokitansky
उन्होंने पाया कि ये गांठें बिल्कुल गर्भाशय के अंदर की परत जैसी दिखती थीं, पर थीं शरीर में कहीं और। उन्होंने अपराधी को पहचान लिया था, पर उसका नाम अभी भी नहीं पता था।
असली बदलाव 20वीं सदी में आया।
अमेरिका के एक डॉक्टर जॉन ए. सैम्पसन ने उन महिलाओं की बातों को सुना जिनका दर्द कोई नहीं समझ पा रहा था।
उन्होंने सभी टुकड़ों को जोड़ा और 1925 में, इस छुपे हुए दर्द को एक नाम दिया: एंडोमेट्रियोसिस।
फिर उन्होंने एक ऐसी थ्योरी दी जिसने सब कुछ बदल दिया: रेट्रोग्रेड मेंस्ट्रुएशन (Retrograde Menstruation)।
उन्होंने समझाया कि पीरियड्स के दौरान कुछ खून, जो शरीर से बाहर जाना चाहिए, वह फैलोपियन ट्यूब्स के ज़रिए पेट में वापस चला जाता है।
ये कोशिकाएं वहाँ चिपक जाती हैं और हर महीने पीरियड्स की तरह खून बहाती हैं, पर बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। यही वह सच्चाई थी जो सदियों से छुपी हुई थी।
आज, हम इस बीमारी को बेहतर समझते हैं। हम जानते हैं कि यह सिर्फ एक जगह की बीमारी नहीं है, बल्कि पूरे शरीर में सूजन पैदा करती है।
यह केवल हार्मोन की नहीं, बल्कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (immune system) और जेनेटिक्स से भी जुड़ी हुई है।
एंडोमेट्रियोसिस की कहानी एक धीमी, मुश्किल लड़ाई की कहानी है। यह उन लाखों महिलाओं की कहानी है जिनके दर्द को हमेशा ‘नॉर्मल’ कहकर टाल दिया गया।
लेकिन आज, इस दर्द को एक नाम मिल गया है, एक पहचान मिल गई है, और इसे हराने के लिए हम सब मिलकर आवाज़ उठा रहे हैं।
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