आपको रणबीर कपूर की फ़िल्म ‘बर्फ़ी!’ याद है? उसमें रणबीर कपूर को जब अस्थमा का अटैक आता था, तो वो झट से अपना Inhaler ( इनहेलर) निकाल लेता था।
आज हमारे लिए यह दृश्य बहुत आम है, क्योंकि इनहेलर एक छोटा सा, जीवन बचाने वाला उपकरण बन चुका है।
पर क्या आप जानते हैं कि हमेशा से ऐसा नहीं था?
ज़रा सोचिए… उन लोगों के बारे में, जिनके लिए साँस लेना भी एक लड़ाई जैसा लगता था।
जब किसी को अस्थमा का दौरा पड़ता था, तो उसके पास न तो कोई छोटी-सी, पोर्टेबल मशीन होती थी और न ही कुछ सेकंड में आराम देने वाली कोई दवाई। साँस की घुटन, घुटन ही रहती थी।
आज हमारे पास इनहेलर है, एक ऐसी छोटी सी डिवाइस जो एक ही puff में जीवनदान दे सकती है। लेकिन इस जादुई मशीन का सफ़र हज़ारों साल पुराना है।
जब धुएँ और भाप से इलाज होता था
इनहेलर के शुरुआती रूप हमें प्राचीन सभ्यताओं में मिलते हैं।
प्राचीन भारत: आयुर्वेदिक चिकित्सा में, जड़ी-बूटियों और मसालों का धुंआ साँस के ज़रिए लिया जाता था ताकि साँस की नली साफ़ हो सके।
ये जड़ी-बूटियाँ आज के इनहेलर की तरह काम करती थीं, बस तरीका बहुत पुराना था।
प्राचीन मिस्र और यूनान: वहाँ भी जड़ी-बूटियों, ख़ासकर धतूरे के पत्तों को जलाकर उनका धुआँ साँस के ज़रिए अंदर लिया जाता था।
वे मानते थे कि यह तरीक़ा साँस की नली की सूजन को कम कर सकता है।
ये तरीक़े भले ही कारगर नहीं थे और इनके कई साइड इफ़ेक्ट भी होते थे, पर ये दिखाते हैं कि साँस की तकलीफ़ का इलाज ढूंढने की कोशिश हज़ारों सालों से जारी थी।
एक पिता की जिद और एक बड़ा आविष्कार
19वीं सदी में, हाथ से चलाए जाने वाले स्प्रे और नेबुलाइज़र (nebulizer) का आविष्कार हुआ।
ये मशीनें दवा को भाप में बदलकर फेफड़ों तक पहुँचाती थीं। ये पहले वाले तरीक़ों से ज़्यादा कारगर थे, पर ये बड़े, भारी और पोर्टेबल नहीं थे।
अगर किसी को साँस की तकलीफ़ कहीं बाहर होती थी, तो वो कुछ नहीं कर पाता था।
और यहीं कहानी में असली मोड़ आया।
1956 में, अमेरिका में डेबी नाम की एक 13 साल की बच्ची को अस्थमा का दौरा पड़ा।
उसकी हालत देखकर उसके पिता जॉर्ज मैसन (George Maison), जो पेशे से एक इंजीनियर थे, का दिल पसीज गया।
उन्होंने देखा कि उनकी बेटी को इलाज के लिए बार-बार अस्पताल जाना पड़ता था, क्योंकि इलाज के कोई पोर्टेबल साधन नहीं थे।
जॉर्ज ने एक इंजीनियर की तरह सोचना शुरू किया। उनकी नज़र जब बाज़ार में बिकने वाले हेयर स्प्रे के कैन पर पड़ी, तो उनके दिमाग में एक विचार कौंधा।
उन्हें लगा कि अगर ये कैन हवा के दबाव से स्प्रे कर सकते हैं, तो इसी तकनीक का इस्तेमाल करके दवा को भी एक छोटी, तय मात्रा (Metered Dose) में बाहर निकाला जा सकता है।
अपने इस विचार को हकीकत में बदलने के लिए, उन्होंने अपनी कंपनी Riker Laboratories की टीम के साथ मिलकर काम किया।
कई कोशिशों और शोध के बाद, उनकी टीम ने एक ऐसा इनहेलर बनाया जो एक तय मात्रा में दवा का स्प्रे निकालता था।
उनकी इस नई सोच से ‘मेडिहेलर’ (Medihaler) नाम का पहला पोर्टेबल इनहेलर बना, जिसने लाखों लोगों की ज़िंदगी बदल दी।
एक puff और लाखों लोगों की साँसें
1956 में बना यह छोटा सा इनहेलर रातोंरात एक क्रांति बन गया।
अब अस्थमा का मरीज़ अपने पास एक छोटी, हल्की और कारगर डिवाइस रख सकता था।
जब भी उसे साँस लेने में तकलीफ़ होती, वो सिर्फ़ एक puff लेकर तुरंत राहत पा सकता था।
यह सिर्फ़ एक मेडिकल आविष्कार नहीं था, बल्कि एक उम्मीद थी जिसने लाखों लोगों को साँस की बीमारियों से डरना बंद करने की हिम्मत दी।
इनहेलर ने उन्हें अपनी ज़िंदगी बिना किसी डर के जीने का मौक़ा दिया, और यह आज भी लाखों लोगों की ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा है।
ऑटो-डिसेबल सिरिंज: एक ज़िद की कहानी, जिसने लाखों ज़िंदगियाँ बचाई-Marc Koska
Mask की कहानी: प्लेग से कोविड-19 तक का सफ़र – जब डर पर भारी पड़ा इंसानी हौसला
[…] […]
[…] […]