आज जब हम किसी ब्लड डोनेशन कैंप में अपनी बांह आगे करते हैं, तो खून बड़ी आसानी से एक प्लास्टिक बैग में इकट्ठा हो जाता है।

फिर उसे ले जाकर सुरक्षित तापमान पर स्टोर कर दिया जाता है, ताकि ज़रूरत पड़ने पर किसी की जान बचाई जा सके।

यह प्रक्रिया इतनी सहज और सामान्य लगती है कि शायद ही कोई यह सोचता होगा कि एक समय था जब खून को शरीर से बाहर निकालने की कल्पना करना भी मुश्किल था।

 

हमारी पिछली कहानियों में हमने उस महत्वपूर्ण मोड़ को देखा, जब कार्ल लैंडस्टीनर ने अलग-अलग ब्लड ग्रुप्स (A, B, O, AB)

की खोज करके ब्लड ट्रांसफ्यूजन यानी खून चढ़ाने की प्रक्रिया को एक हद तक सुरक्षित बना दिया था।

यह खोज एक बहुत बड़ी कामयाबी थी, जिसने यह समझाया कि क्यों पहले के कई ट्रांसफ्यूजन असफल हो जाते थे और मरीज़ की जान पर बन आती थी।

अब डॉक्टरों को कम से कम यह तो पता चल गया था कि किस मरीज़ को कौन सा खून चढ़ाना है।

 

लेकिन, इस सफलता के बावजूद, डॉक्टरों के सामने एक बहुत बड़ी और निराशाजनक समस्या मुँह बाए खड़ी थी।

यह ऐसी रुकावट थी जो ब्लड ट्रांसफ्यूजन की पूरी क्षमता को इस्तेमाल करने से रोक रही थी।

समस्या: एक ही कमरे में बंधा जीवन

भले ही अब यह ज्ञान उपलब्ध था कि कौन सा ब्लड ग्रुप किसके लिए सही है, खून चढ़ाने की प्रक्रिया अभी भी बेहद जटिल और सीमित थी।

उस दौर में जो तरीका इस्तेमाल किया जाता था, उसे ‘डायरेक्ट ट्रांसफ्यूजन’ कहते थे।

इस तरीके के नाम में ही इसकी सबसे बड़ी मजबूरी छिपी हुई थी: डोनर यानी खून देने वाले और मरीज़ को एक ही कमरे में, बल्कि अक्सर एक-दूसरे के बिल्कुल पास होना पड़ता था।

 

डॉक्टर एक खास तरह के डिवाइस का इस्तेमाल करते थे, जिसमें एक ट्यूब डोनर की नस में डाली जाती थी और दूसरी मरीज़ की नस में।

ये दोनों ट्यूब्स आपस में सीधे जुड़े होते थे, और खून गुरुत्वाकर्षण या एक साधारण पंप की मदद से सीधे डोनर के शरीर से मरीज़ के शरीर में प्रवाहित होता था।

यह इसलिए करना पड़ता था क्योंकि उस समय तक खून को शरीर से बाहर निकालने और उसे जमने से रोकने का कोई विश्वसनीय तरीका ईजाद नहीं हुआ था।

जैसे ही खून हवा के संपर्क में आता था, वह कुछ ही मिनटों में गाढ़ा होकर जम जाता था, जिससे पूरी प्रक्रिया बीच में ही रुक जाती थी और मरीज़ के लिए खतरा और बढ़ जाता था।

 

ज़रा सोचिए, ऐसी स्थिति में अगर कोई इमरजेंसी आ जाए तो क्या होता होगा?

 

मान लीजिए, किसी दूर-दराज के गाँव में किसी का एक्सीडेंट हो गया और उसे तुरंत खून की ज़रूरत है।

डोनर को तुरंत उस जगह पर पहुँचाना कितना मुश्किल होता होगा! शहरों में भी, अगर सही ब्लड ग्रुप का डोनर अस्पताल में मौजूद न हो तो क्या किया जाता होगा?

डॉक्टर बेबसी से मरीज़ की हालत बिगड़ते हुए देखते रहते थे, यह जानते हुए भी कि खून चढ़ाकर उसकी जान बचाई जा सकती है,

पर सिर्फ इसलिए नहीं बचा पाते थे क्योंकि खून शरीर से बाहर आते ही अपनी तरलता खो देता था।

यह एक ऐसी निराशाजनक रुकावट थी जिसने ब्लड ट्रांसफ्यूजन के पूरी तरह से कारगर होने के रास्ते में एक बहुत बड़ा पत्थर खड़ा कर दिया था।

समाधान की खोज: कैल्शियम का रहस्य और वैज्ञानिकों के प्रयास

20वीं सदी की शुरुआत तक, वैज्ञानिक इस बात से तो अच्छी तरह वाकिफ थे कि खून जमता है, लेकिन इस जटिल प्रक्रिया के पीछे की पूरी बायोकेमिस्ट्री उन्हें अभी भी धुंधली नज़र आ रही थी।

वे यह तो जानते थे कि कुछ खास तरह के तत्व खून के जमने में मदद करते हैं, लेकिन उनकी सटीक भूमिका और उन्हें नियंत्रित करने के तरीके अभी भी अनसुलझे थे।

फिर 1890 के दशक में, दो प्रमुख वैज्ञानिकों, जूलस आर्थस (Jules Arthus) और अलेक्जेंडर श्मिट (Alexander Schmidt) ने अपनी स्वतंत्र रिसर्च में एक महत्वपूर्ण खोज की।

उन्होंने कई प्रयोगों के बाद यह साबित किया कि कैल्शियम का खून जमने की प्रक्रिया में एक बहुत ही खास और निर्णायक रोल होता है।

 

उन्होंने दिखाया कि अगर खून में से कैल्शियम को किसी तरह निकाल दिया जाए या उसके प्रभाव को कम कर दिया जाए, तो खून जमने की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति खो देता है।

यह एक बहुत बड़ी और बुनियादी जानकारी थी जिसने वैज्ञानिकों के सोचने का तरीका बदल दिया।

अब उन्हें पता चल गया था कि खून को जमने से रोकने के लिए सीधे खून में मौजूद कैल्शियम को निशाना बनाना होगा।

इस नई जानकारी के आधार पर, वैज्ञानिकों ने एक नया और आशाजनक रास्ता सोचा

“अगर हम कोई ऐसा हानिरहित रसायन (chemical) ढूंढ लें जो खून से कैल्शियम को प्रभावी ढंग से हटा दे

या उसे खून जमने की प्रक्रिया में काम करने से रोक दे,

तो शायद हम खून को शरीर से बाहर निकालकर भी उसकी तरलता को बनाए रख सकेंगे।”

इसी महत्वपूर्ण विचार पर आधारित होकर दुनिया भर के कई वैज्ञानिकों ने अलग-अलग दिशाओं में काम करना शुरू कर दिया।

वे ऐसे अलग-अलग केमिकल्स पर प्रयोग कर रहे थे जो खून के साथ रिएक्ट करके कैल्शियम को निष्क्रिय कर सकें।

हालांकि, यह काम इतना आसान नहीं था। कई केमिकल्स या तो मरीज़ के लिए ज़हरीले साबित होते थे, या फिर वे खून को जमने से रोकने में उतने असरदार नहीं थे जितना ज़रूरी था।

एक ही समय में तीन क्रांतिकारी खोजें

BLOOD TRANSFUSION

फिर वह ऐतिहासिक साल आया, 1914। इस एक ही साल में, तीन अलग-अलग वैज्ञानिकों ने लगभग एक साथ एक ऐसा कमाल का समाधान खोज निकाला

जिसने ब्लड ट्रांसफ्यूजन के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया।

सबसे पहले, बेल्जियम के डॉक्टर अल्बर्ट हस्टिन (Albert Hustin) ने यह महत्वपूर्ण खोज की।

उन्होंने पाया कि अगर खून में सोडियम साइट्रेट (Sodium Citrate) नाम का एक साधारण केमिकल मिला दिया जाए, तो यह खून में मौजूद कैल्शियम आयनों के साथ बंधकर उन्हें निष्क्रिय कर देता है,

और इस तरह खून को जमने से प्रभावी ढंग से रोका जा सकता है।

 

उनकी यह खोज एक बड़ी सफलता थी, क्योंकि सोडियम साइट्रेट खून के लिए अपेक्षाकृत कम हानिकारक था और खून को काफी देर तक तरल बनाए रखने में सक्षम था।

उसी साल, अर्जेंटीना के एक और प्रतिभाशाली डॉक्टर, लुइस अगोटे (Luis Agote) ने भी स्वतंत्र रूप से यही महत्वपूर्ण खोज की।

उन्होंने भी सोडियम साइट्रेट के एंटीकोगुलेंट गुणों को पहचाना और सफलतापूर्वक इसका इस्तेमाल खून को जमने से रोकने के लिए किया।

और कुछ ही महीनों बाद, अमेरिका के एक वैज्ञानिक, रिचर्ड लुईसोहन (Richard Lewisohn) ने भी अपने प्रयोगों के ज़रिए यह साबित कर दिया

कि सोडियम साइट्रेट एक बहुत ही असरदार और व्यावहारिक एंटीकोगुलेंट (खून को जमने से रोकने वाला पदार्थ) है, जिसे ब्लड ट्रांसफ्यूजन की प्रक्रिया में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है।

 

यह एक ऐसा सस्ता, सुलभ और असरदार समाधान था जिसने ब्लड ट्रांसफ्यूजन का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया।

अब डॉक्टरों के लिए यह संभव हो गया था कि वे डोनर के शरीर से खून निकालकर उसे एक sterilizedबोतल या बैग में सुरक्षित रूप से रख सकें।

इस तरह से स्टोर किए गए खून को बाद में किसी भी ज़रूरतमंद मरीज़ को, सही ब्लड ग्रुप मैच करने के बाद, आसानी से चढ़ाया जा सकता था, भले ही डोनर उस समय वहाँ मौजूद न हो।

 

इसी क्रांतिकारी खोज ने आधुनिक ब्लड बैंक की नींव रखी।

अब खून को ज़रूरत के समय के लिए इकट्ठा करके रखा जा सकता था, उसे प्रोसेस किया जा सकता था, और विभिन्न अस्पतालों और क्लिनिक्स तक पहुँचाया जा सकता था।

यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसने लाखों लोगों की जान बचाने का एक नया और शक्तिशाली रास्ता खोल दिया।

डायरेक्ट ट्रांसफ्यूजन की मजबूरी अब इतिहास बन चुकी थी, और ब्लड ट्रांसफ्यूजन सचमुच एक जीवन रक्षक वरदान के रूप में स्थापित हो गया था।

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