ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान माइकल क्लार्क ने हाल ही में अपने सोशल मीडिया पर अपनी एक तस्वीर साझा की।
तस्वीर में उनके नाक पर एक पट्टी लगी थी, और उन्होंने लिखा था कि यह उनका छठा स्किन कैंसर ऑपरेशन था।
उन्होंने लोगों से धूप से बचने और नियमित जाँच कराने की अपील की। क्लार्क की यह कहानी, जो धूप में घंटों क्रिकेट खेलने का नतीजा है, हमें एक सदियों पुराने रहस्य की याद दिलाती है।
एक समय था जब धूप को सेहतमंद माना जाता था, और स्किन कैंसर के बारे में कोई नहीं जानता था।
यह कहानी है उसी अनजान सफर की, जिसने हमें एक आम आदत के गंभीर परिणामों से अवगत कराया।
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वह समय जब धूप सेहत का वरदान थी
18वीं और 19वीं सदी में, धूप को सेहत और जीवन शक्ति का प्रतीक माना जाता था।
उस समय, लोग मानते थे कि धूप शरीर को मज़बूत बनाती है और बीमारियों को दूर रखती है।
गोरी त्वचा को सुंदरता का प्रतीक माना जाता था, लेकिन 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में, जब धूप सेंकने (sunbathing) का चलन बढ़ा, तो ‘टैन’ हुई त्वचा को भी आकर्षक माना जाने लगा।
लेकिन इसी दौर में, कुछ डॉक्टर अपने मरीजों के बीच एक अजीब पैटर्न देख रहे थे।
शुरुआती संदेह: जब डॉक्टरों ने धूप और कैंसर को जोड़ा
19वीं सदी में, कुछ डॉक्टरों ने सबसे पहले इस रिश्ते पर संदेह किया।
उन्होंने देखा कि किसान, मछुआरे और नाविक जैसे लोग जो ज़्यादातर समय धूप में काम करते थे, उनकी त्वचा पर अक्सर अजीब घाव और धब्बे होते थे जो कैंसर में बदल जाते थे।
1896 में, जर्मन त्वचा विशेषज्ञ डॉ. पॉल गर्सन उन्ना ने पहली बार उन त्वचा संबंधी परिवर्तनों का वर्णन किया जो लगातार धूप में रहने से होते हैं,
जिसे उन्होंने ‘हाइपरकेराटोसिस’ कहा। यह पहला लिखित सबूत था जिसने चिकित्सा जगत को सोचने पर मजबूर किया।
वैज्ञानिक प्रमाण: यूवी किरणों का खुलासा
20वीं सदी की शुरुआत में, इस संदेह को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया गया।
1928 में, यह पता चला कि सूरज की रोशनी में अल्ट्रावायलेट (UV) रेडिएशन नामक एक अदृश्य किरण होती है।
1930 के दशक में, जानवरों पर प्रयोग करके यह साबित किया गया कि यूवी किरणें सीधे डीएनए को नुकसान पहुँचा सकती हैं।
इस डीएनए क्षति से कोशिकाएँ अनियंत्रित रूप से बढ़ने लगती हैं, जिससे कैंसर होता है।
इस खोज के बाद, हेनरी लैंकेस्टर नामक एक ऑस्ट्रेलियाई प्रोफेसर ने 1956 में एक बड़ा शोध किया।
उन्होंने पाया कि भूमध्य रेखा (equator) के करीब रहने वाले लोगों में, जहाँ धूप ज़्यादा तेज़ होती है, त्वचा कैंसर, खासकर मेलानोमा (melanoma), ज़्यादा आम था।
इस शोध ने साबित कर दिया कि धूप की तीव्रता और त्वचा कैंसर के बीच सीधा संबंध है।
सनस्क्रीन क्रांति’ और जागरूकता अभियान
लंबे समय तक, इन वैज्ञानिक चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया गया, और धूप सेंकने का चलन बहुत बढ़ गया।
लेकिन 1970 और 80 के दशक में, जब त्वचा कैंसर के मामले तेज़ी से बढ़ने लगे, तब चिकित्सा समुदाय ने एक बड़ा सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियान शुरू किया।
उन्होंने लोगों को सनस्क्रीन लगाने, धूप से बचने और सुरक्षात्मक कपड़े पहनने की सलाह दी।
सनस्क्रीन का विकास: शुरुआती सनस्क्रीन बहुत प्रभावी नहीं थे, लेकिन 1970 के दशक के बाद, सन प्रोटेक्शन फैक्टर (SPF) का आविष्कार हुआ, जिसने सनस्क्रीन को और भी प्रभावी बना दिया।
जागरूकता अभियान: ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों ने “स्लिप, स्लॉप, स्लैप” जैसे अभियान चलाए, जिसमें लोगों को कपड़े पहनने, सनस्क्रीन लगाने और टोपी लगाने की सलाह दी गई।
आज, हम जानते हैं कि 90% से ज़्यादा त्वचा कैंसर के मामले सूरज की यूवी किरणों के कारण होते हैं।
माइकल क्लार्क जैसे लोग आज भी इस बीमारी से जूझ रहे हैं,
जो हमें यह याद दिलाता है कि यह सिर्फ एक मेडिकल समस्या नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक गलती है, जिसे हम अपनी जागरूकता और सावधानी से सुधार सकते हैं।
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डिस्क्लेमर (Disclaimer)
यह कहानी केवल सूचना और जागरूकता के उद्देश्य से लिखी गई है।
इसमें दी गई जानकारी चिकित्सा सलाह का विकल्प नहीं है।
किसी भी स्वास्थ्य समस्या या बीमारी के लिए, हमेशा एक योग्य चिकित्सक से सलाह लें।
यह कहानी किसी व्यक्ति, ब्रांड या संस्थान को नुकसान पहुँचाने के इरादे से नहीं लिखी गई है।
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