याद है, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सेट पर जब हमारे सबके चहेते अमिताभ बच्चन जी ने अपनी एक बीमारी का ज़िक्र किया था?
उन्होंने बताया था कि कैसे एक बार उनका शरीर अचानक कमज़ोर पड़ गया था और उन्हें लगा था कि अब उनका करियर खत्म हो जाएगा। उस बीमारी का नाम था मायस्थेनिया ग्रेविस।
अमिताभ जी की इस कहानी ने करोड़ों लोगों का ध्यान इस बीमारी की तरफ खींचा।
पर क्या आप जानते हैं कि जिस बीमारी से आज अमिताभ बच्चन जी हिम्मत से लड़ रहे हैं, उसकी कहानी 300-400 साल पुरानी है?
उस समय डॉक्टर और वैज्ञानिक भी इस पहेली को सुलझा नहीं पा रहे थे। लोगों को लगता था कि यह कोई जादू-टोना है या कोई रहस्यमयी बीमारी है। लेकिन कुछ समझदार लोगों ने जासूसों की तरह इस पहेली को धीरे-धीरे सुलझाना शुरू किया।
सबसे पहला सुराग: 1672 का रहस्यमयी मरीज़
इस कहानी का पहला और सबसे महत्वपूर्ण सुराग मिला साल 1672 में। उस समय के एक मशहूर अंग्रेज़ डॉक्टर थे थॉमस विलिस।
उन्होंने अपनी किताबों में एक ऐसी महिला मरीज़ के बारे में लिखा, जिसकी कहानी सुनकर आज भी आप हैरान हो जाएंगे।
विलिस ने बताया कि वह महिला सुबह के समय बिल्कुल ठीक-ठाक रहती थी। वह खुलकर बात करती, हँसती और अपनी कहानी सुनाती।
लेकिन, जैसे-जैसे दिन ढलता जाता और वह बोलना जारी रखती, उसकी आवाज़ धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगती। कुछ ही देर में, उसकी ज़ुबान उसका साथ छोड़ देती, और उसकी आवाज़ ऐसी हो जाती, जैसे कोई गूंगा हो गया हो।
यह कोई आम कमज़ोरी नहीं थी। विलिस ने साफ-साफ लिखा था कि यह कमज़ोरी ज़्यादा काम करने पर बढ़ती थी और जब वह महिला थोड़ी देर आराम कर लेती, तो उसकी आवाज़ वापस आ जाती थी।
यह आज की मायस्थेनिया ग्रेविस की सबसे पहली और सटीक पहचान थी, जिसे विलिस ने अपनी दूरदर्शिता से 300 साल पहले ही भांप लिया था।
‘क्यूरारे’ ज़हर, जंग का कनेक्शन और एक बहादुर महिला डॉक्टर का दिमाग
यह कहानी 1934 तक ऐसे ही चलती रही, जब मैरी वॉकर नाम की एक महिला डॉक्टर ने कमाल कर दिया।
वॉकर ने देखा कि उनके मरीज़ के लक्षण बिल्कुल वैसे ही थे, जैसे उन लोगों के, जिन्हें ‘क्यूरारे’ नाम का ज़हर दिया जाता था। यह ज़हर मांसपेशियों को paralysed कर देता था।
मैरी वॉकर ने सोचा, “अगर इस ज़हर का कोई तोड़ है, तो शायद इस बीमारी का भी कोई इलाज होगा।”
उन्होंने पाइरिडोस्टिग्माइन नाम की एक दवाई दी और जानते हैं क्या हुआ? कुछ ही मिनटों में मरीज़ की मांसपेशियाँ काम करने लगीं!
यह कोई जादू नहीं था, बल्कि वॉकर की सूझबूझ और हिम्मत थी, जिसने मायस्थेनिया ग्रेविस का पहला सफल इलाज दुनिया को दिया।
अब यहाँ एक रोचक बात आती है। ‘क्यूरारे’ ज़हर से मिलती-जुलती तंत्रिका गैस (nerve gas) को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान विकसित किया जा रहा था।
मायस्थेनिया ग्रेविस के इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाइयाँ (एंटीकोलिनेस्टेरेज) इन ज़हरीली गैसों के असर को भी कम कर सकती थीं।
इस तरह, एक तरफ तो यह दवाई एक भयानक बीमारी का इलाज थी, वहीं दूसरी तरफ इसका इस्तेमाल युद्ध में होने वाले रसायनों के तोड़ के रूप में भी होता था।
थाइमस ग्लैंड: वो छोटा सा अंग और उसका बड़ा काम
1930 के दशक में, एक और जासूस, सर्जन अल्फ्रेड ब्लैलॉक, ने एक और चौंकाने वाली खोज की।
उन्होंने पाया कि मायस्थेनिया ग्रेविस के कई मरीजों की थाइमस ग्लैंड (जो छाती में होती है) बहुत बड़ी हो जाती थी।
ब्लैलॉक ने हिम्मत करके एक मरीज़ की थाइमस ग्लैंड का ऑपरेशन किया और उसे निकाल दिया। नतीजा यह हुआ कि मरीज़ की हालत में हैरतअंगेज सुधार हुआ।
ब्लैलॉक को तब पूरी तरह पता नहीं था कि यह क्यों हुआ, पर उन्होंने दुनिया को यह बता दिया था कि इस छोटे से अंग का हमारी मांसपेशियों की कमज़ोरी से गहरा रिश्ता है।
जब पहेली पूरी हुई: 1970 का दशक
आखिरकार, 1970 के दशक में सभी सुराग एक साथ जुड़ गए।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि मायस्थेनिया ग्रेविस एक ऑटोइम्यून बीमारी है। जैसा कि हमने पहले ही “चाबी और ताले” के उदाहरण में समझा था, इस बीमारी में कुछ ऐसा ही होता है, पर यह थोड़ा ज़्यादा जटिल है।
आप इसे ऐसे समझिए कि हमारी हर मांसपेशी में एक दरवाजा होता है, जिसे हम रिसेप्टर (receptor) कहते हैं।
जब दिमाग को मांसपेशी को हिलाने का सिग्नल देना होता है, तो वह एक केमिकल मेसेंजर, जिसे एसिटाइलकोलाइन (acetylcholine) कहते हैं, भेजता है।
यह एसिटाइलकोलाइन एक चाबी की तरह होता है, जो मांसपेशी के दरवाजे (रिसेप्टर) को खोल देता है, और मांसपेशी काम करने लगती है।
लेकिन मायस्थेनिया ग्रेविस में क्या होता है? हमारा ही इम्यून सिस्टम, जो हमें बीमारियों से बचाता है, गलती से कुछ ऐसे एंटीबॉडीज़ (antibodies) बना देता है जो इन दरवाज़ों (रिसेप्टर्स) पर कब्ज़ा कर लेते हैं।
ये एंटीबॉडीज़ बिलकुल किसी बाहरी गुंडे की तरह होते हैं, जो दरवाज़े के सामने खड़े होकर असली चाबी (एसिटाइलकोलाइन) को अंदर जाने ही नहीं देते।
इस वजह से चाबी होते हुए भी दरवाजा नहीं खुलता और मांसपेशी को सिग्नल नहीं मिल पाता। इसीलिए मांसपेशियाँ कमज़ोर हो जाती हैं।
इस खोज ने इलाज का पूरा तरीका ही बदल दिया। अब डॉक्टर उन दवाइयों का इस्तेमाल करने लगे जो इम्यून सिस्टम को शांत करती हैं, ताकि वह हमारे अपने ही शरीर पर हमला करना बंद कर दे।
यह एक लंबी और रोचक यात्रा थी, जिसने हमें इस बीमारी की गहराई तक पहुँचाया। आज अमिताभ बच्चन जैसे लाखों लोग इसी समझ और इन शुरुआती खोजों के कारण ही एक बेहतर ज़िंदगी जी पा रहे हैं।
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