आजकल Ozempic (ओज़ेम्पिक) और Wegovy (वेगॉवी) का नाम हर जगह है।
लोग इसे डायबिटीज और वजन कम करने की ‘जादुई’ दवाई कहते हैं।
पर क्या आपने कभी सोचा है कि ये दवाई बनी कैसे और इसकी कहानी कहाँ से शुरू हुई?
क्या आपको पता है, इसकी शुरुआत एक ज़हरीली छिपकली से हुई थी?
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जब एक लेख में छपी जानकारी ने दुनिया बदल दी
एक दिन, उनकी नज़र एक लेख पर पड़ी जिसमें एक अजीबोगरीब छिपकली – ‘गिला मॉन्स्टर’ (Gila Monster) – के बारे में लिखा था।
इस छिपकली के बारे में सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि यह साल में सिर्फ़ कुछ ही बार खाना खाती थी, फिर भी इसका ब्लड शुगर हमेशा एकदम सही रहता था।
यह बात डॉ. एंग को हैरत में डाल गई।
उन्होंने सोचा, “ऐसा क्यों?”
अगर यह छिपकली इतना कम खाती है और फिर भी उसका शुगर लेवल सही रहता है, तो ज़रूर इसके शरीर में कोई ऐसा सिस्टम है जो हमारे सिस्टम से ज़्यादा असरदार है।
बस, इसी लेख से मिली जानकारी ने डॉ. एंग को प्रेरित किया और उन्होंने गिला मॉन्स्टर के ज़हर का अध्ययन शुरू किया।
जल्द ही, उन्हें उस ज़हर में एक ऐसा पेप्टाइड (Exendin-4) मिला, जो हमारे GLP-1 की नकल करता था,
लेकिन इसका असर हमारे प्राकृतिक हार्मोन से कहीं ज़्यादा देर तक रहता था। यह एक लेख से मिली जानकारी थी जिसने ओज़ेम्पिक जैसी दवाई बनाने का रास्ता खोला।
इसी खोज के आधार पर, 2005 में पहली GLP-1 आधारित दवाई, एक्सेनाटाइड (Exenatide), बनी और इसे डायबिटीज के इलाज के लिए मंज़ूरी मिली।
यह एक बहुत बड़ी वैज्ञानिक सफलता थी!
लेकिन फिर भी, यह दवाई उस तरह से लोकप्रिय नहीं हो पाई जैसा कि आज ओज़ेम्पिक है।
और यहीं पर आता है हमारी कहानी का सबसे ज़रूरी मोड़।
वह ‘कमी’ जिसने ओज़ेम्पिक को स्टार बनाया
एक्सेनाटाइड में एक बहुत बड़ी व्यावहारिक कमी (Practical Drawback) थी।
इसका असर ज़्यादा देर तक नहीं रहता था, जिसकी वजह से मरीज़ों को दिन में दो बार (Twice a Day) इसका इंजेक्शन लेना पड़ता था।
रोज़-रोज़, दिन में दो बार सुई लगाना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल और असुविधाजनक काम था।
इस वजह से बहुत से लोग इलाज को बीच में ही छोड़ देते थे या ठीक से पालन नहीं कर पाते थे।
वैज्ञानिकों को यह बात समझ में आ गई थी कि अगर उन्हें इस टेक्नोलॉजी को सफल बनाना है,
तो उन्हें एक ऐसी दवाई बनानी होगी जो ज़्यादा समय तक चले और जिसे लेने में आसानी हो।
उन्हें ऐसी ‘लॉन्ग-एक्टिंग’ दवाई की तलाश थी जो शरीर में हफ्तों तक अपना असर दिखाए।
वैज्ञानिकों का कमाल: एक छोटा सा बदलाव जिसने सब कुछ बदल दिया
कई साल की रिसर्च और कड़ी मेहनत के बाद, वैज्ञानिकों ने GLP-1 के अणु (molecule) में एक छोटा सा लेकिन बहुत ही शानदार बदलाव किया।
उन्होंने इस अणु के साथ एक फ़ैटी एसिड चेन (Fatty Acid Chain) जोड़ दी।
आप इसे ऐसे समझ सकते हैं: हमारे खून में एक प्रोटीन होता है जिसका नाम एल्बुमिन (Albumin) है।
यह प्रोटीन हमारे शरीर में किसी टैक्सी की तरह काम करता है, जो चीज़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है।
जब वैज्ञानिकों ने सेमाग्लूटाइड के अणु में फ़ैटी एसिड चेन को जोड़ा, तो इस चेन ने एल्बुमिन के साथ चिपकना शुरू कर दिया।
इसकी वजह से सेमाग्लूटाइड का अणु एल्बुमिन के साथ जुड़ गया और हमारे शरीर के एन्ज़ाइम्स (enzymes) इसे जल्दी से तोड़ नहीं पाए।
यह एल्बुमिन एक तरह से सेमाग्लूटाइड के लिए ‘सुरक्षा कवच’ बन गया।
इस एक बदलाव ने दवाई की लाइफ को कई गुना बढ़ा दिया। जहाँ एक्सेनाटाइड का असर सिर्फ कुछ घंटों का था, वहीं सेमाग्लूटाइड (Ozempic) का असर पूरे एक हफ्ते (7 दिन) तक रहने लगा।
यही था ओज़ेम्पिक का ‘जादू’
यही वह सबसे बड़ा कारण था जिसने ओज़ेम्पिक को बाक़ी सभी से अलग कर दिया।
दिन में दो बार सुई लगाने की जगह, अब मरीज़ों को हफ्ते में सिर्फ़ एक बार (Once a Week) सुई लगानी थी।
इस बदलाव ने न केवल इलाज को बहुत ज़्यादा सुविधाजनक बना दिया, बल्कि मरीजों के लिए इसका पालन करना भी बेहद आसान हो गया।
इसी वजह से, सेमाग्लूटाइड (Ozempic/Wegovy) ने न सिर्फ डायबिटीज के इलाज में, बल्कि वजन घटाने के क्षेत्र में भी धूम मचा दी।
यह साबित हुआ कि विज्ञान में अक्सर एक छोटा सा बदलाव भी बड़े परिणाम ला सकता है।
तो अगली बार जब आप ओज़ेम्पिक के बारे में सुनें, तो याद रखिएगा कि यह सिर्फ एक ‘जादुई’ दवाई नहीं है,
बल्कि एक ज़हरीली छिपकली से शुरू हुई वैज्ञानिक जिज्ञासा, सालों की रिसर्च और एक छोटे से, पर बहुत ही स्मार्ट, बदलाव का नतीजा है।
ओज़ेम्पिक (Ozempic) का शोर: सच या सिर्फ एक भ्रम?
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