पार्किंसंस का नया इलाज: नैनोपार्टिकल्स और हाइड्रो जेल से मिली उम्मीद

क्या आपने कभी किसी ऐसे इंसान को देखा है जिसके हाथ-पैर बेवजह काँपते हों, जिनकी चाल धीमी हो गई हो या जिन्हें चलने में दिक्कत हो रही हो?

हो सकता है कि उन्हें पार्किंसंस रोग हो। यह दिमाग से जुड़ी एक ऐसी बीमारी है जो धीरे-धीरे बढ़ती है और मरीज़ की ज़िंदगी को बहुत मुश्किल बना देती है।

आज तक इसका कोई पक्का इलाज नहीं है, सिर्फ़ ऐसी दवाइयाँ हैं जो लक्षणों को कुछ समय के लिए कम करती हैं।

gold nanoparticle for parkinson

लेकिन, वैज्ञानिक अब इस बीमारी का पता लगाने और इसका इलाज करने के लिए कुछ बिल्कुल नए और क्रांतिकारी तरीक़े खोज रहे हैं।

भारत और ताइवान के वैज्ञानिकों ने इस दिशा में दो बहुत बड़े कदम उठाए हैं।

एक तरफ़, भारत में नैनो टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके बीमारी का शुरुआती दौर में पता लगाने का एक टूल बनाया गया है,

वहीं दूसरी तरफ़ ताइवान में एक ख़ास तरह के जेल और एक्यूपंक्चर से बीमारी का इलाज करने की नई राह मिली है।

आइए, इन दोनों बड़ी खोजों को सरल भाषा में समझते हैं।

पार्किंसंस का पता लगाने का नया तरीका: सोने के नैनोपार्टिकल्स

पार्किंसंस रोग हमारे दिमाग में तब शुरू होता है जब एक ख़ास तरह का प्रोटीन जिसे α-synuclein (अल्फा-साइन्यूक्लिन) कहते हैं, अपना रूप बदलकर ख़तरनाक गुच्छों (aggregates) में बदल जाता है।

ये गुच्छे हमारे दिमाग की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाते हैं, जिससे बीमारी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।

अगर इन गुच्छों को शुरुआती दौर में ही पहचान लिया जाए तो इसका इलाज बहुत आसान हो सकता है।

इसी ज़रूरत को समझते हुए, मोहाली के इंस्टीट्यूट ऑफ़ नैनो साइंस एंड टेक्नोलॉजी (INST) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा टूल बनाया है जो इस प्रोटीन को पहचान सकता है।

उन्होंने बहुत ही छोटे, चमकते हुए सोने के कण बनाए, जिन्हें नैनोक्लस्टर्स कहते हैं।

ये कण इतने छोटे हैं कि इनका साइज़ कुछ नैनोमीटर ही है।

nanogel and accupuncture

इन वैज्ञानिकों ने इन सोने के नैनोक्लस्टर्स पर कुछ प्राकृतिक अमीनो एसिड (amino acids) की कोटिंग की।

इस कोटिंग की वजह से ये कण बहुत स्मार्ट बन गए।

प्रोलाइन (Proline) की कोटिंग वाले कण: ये कण α-synuclein प्रोटीन के सेहतमंद यानी अच्छे रूप से जुड़ते हैं।

हिस्टिडाइन (Histidine) की कोटिंग वाले कण: ये कण उस प्रोटीन के ख़तरनाक, गुच्छे वाले रूप से जुड़ते हैं।

इस तरह, ये कण एक तरह के बायो-सेंसर की तरह काम करते हैं।

 

जब इन्हें खून या शरीर के किसी और तरल में डाला जाता है, तो ये अपने जुड़ने के तरीक़े से बता देते हैं कि प्रोटीन सेहतमंद है या बीमारी वाला।

इस खोज की मदद से, पार्किंसंस का पता तब भी लगाया जा सकता है जब मरीज़ को कोई लक्षण महसूस भी न हुआ हो।

यह रिसर्च डॉ. शर्मिष्ठा सिन्हा की टीम ने की है और इसके नतीजे ‘रॉयल सोसाइटी ऑफ केमिस्ट्री’ के जर्नल ‘नैनोस्केल’ में पब्लिश हुए हैं।

इलाज की नई दिशा: हाइड्रो जेल और एक्यूपंक्चर का मेल

पार्किंसंस के इलाज में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अभी की दवाइयाँ सिर्फ़ लक्षणों को कुछ समय के लिए ठीक करती हैं, वे बीमारी को बढ़ने से नहीं रोक पातीं।

ताइवान की नेशनल ताइवान यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इस समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश की।

उन्होंने एक ख़ास तरह का मटेरियल बनाया जिसे बायोडिग्रेडेबल, इलेक्ट्रोकंडक्टिव सेल्फ-हीलिंग हाइड्रो जेल (Biodegradable, Electroconductive Self-healing Hydrogel) कहते हैं।

 

इसे सरल भाषा में समझें तो, यह एक ऐसा जेल है जिसमें कुछ खास गुण हैं:

बायोडिग्रेडेबल (जैविक रूप से घुलनशील): यह शरीर में सुरक्षित रूप से घुल जाता है।

इलेक्ट्रोकंडक्टिव (बिजली का संचालन करने वाला): यह बिजली के सिग्नल को आगे बढ़ा सकता है।

सेल्फ-हीलिंग (खुद से ठीक होने वाला): अगर इसे नुकसान पहुँचे तो यह अपने आप ठीक हो सकता है।

 

यह जेल दिमाग के टिशू (ऊतक) जैसा ही है। जब इसे पार्किंसंस से प्रभावित दिमाग में इंजेक्ट किया जाता है, तो यह दिमाग की कोशिकाओं को बढ़ने के लिए एक अच्छा माहौल देता है।

यह सूजन को भी कम करता है और लगभग 90% खराब हो चुकी कोशिकाओं को बचा लेता है।

वैज्ञानिकों ने जब इस जेल को पार्किंसंस जैसे लक्षणों वाले चूहों पर इस्तेमाल किया और साथ में एक्यूपंक्चर भी किया,

तो हैरान कर देने वाले नतीजे मिले।

 

सिर्फ़ दो हफ्तों में, उन चूहों की चलने-फिरने की क्षमता में काफ़ी सुधार हुआ।

उनके दिमाग में डोपामाइन बनाने वाली कोशिकाएँ सुरक्षित रहीं और दिमाग की सूजन भी कम हो गई।

प्रो. शान-हुई ह्सू की टीम द्वारा की गई यह रिसर्च ‘बायोमटेरियल्स’ जर्नल में पब्लिश हुई है।

यह खोज दिखाती है कि बायोमटेरियल और एक्यूपंक्चर जैसी पारंपरिक थेरेपी का मेल बीमारियों के इलाज में एक नई दिशा दे सकता है।

भारतीय वैज्ञानिकों का बड़ा योगदान और भविष्य की उम्मीद

इन दोनों खोजों का सबसे ज़रूरी पहलू यह है कि ये एक-दूसरे को पूरा करती हैं।

भारत की नैनो टेक्नोलॉजी से हम बीमारी का शुरुआती दौर में ही पता लगा सकते हैं, और ताइवान की नई थेरेपी से इसका बेहतर इलाज हो सकता है।

यह सिर्फ़ विज्ञान की खोज नहीं है, बल्कि यह लाखों लोगों के लिए एक बड़ी उम्मीद है।

अगर ये तरीक़े कामयाब होते हैं, तो:

शुरुआती इलाज संभव होगा: बीमारी का समय पर पता चलने से इलाज जल्दी शुरू हो सकेगा, जिससे लक्षणों को बढ़ने से रोका जा सकता है।

जीवन स्तर में सुधार: मरीज़ अपनी ज़िंदगी को बेहतर तरीके से जी सकेंगे और उनके जीवन की गुणवत्ता बढ़ेगी।

इलाज का खर्च घटेगा: जल्दी इलाज शुरू होने से लंबे समय तक चलने वाले महंगे मेडिकल खर्चों में कमी आएगी।

 

ये दोनों खोजें अभी शुरुआती चरण में हैं और इन पर और रिसर्च की ज़रूरत है।

पर ये एक बात साफ़ करती हैं कि विज्ञान कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और एक दिन पार्किंसंस जैसी बीमारियों का इलाज भी संभव हो पाएगा।

यह हमें एक सुनहरा भविष्य दिखा रहा है जहाँ तकनीक और पारंपरिक इलाज मिलकर बड़े से बड़े स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।

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